ये सिखाते हैं कि हालात कैसे भी हों दोस्त ही दोस्त के काम आता है, सचिन तेंदुलकर-विनोद कांबली, संजय दत्त-राजकुमार हीरानी और किरन मजूमदार से इसे समझें
दोस्ती का भी एक साइंस है जो कहता है लंबी उम्र चाहिए है तो दोस्तों की संख्या बढ़ाइए। अमेरिका की ब्रिघम यंग यूनिवर्सिटी की रिसर्च कहती है दोस्त न होना बढ़ते मोटापे से भी ज्यादा खतरनाक है जान को जोखिम बढ़ाता है। सबसे अच्छा दोस्त वही है जो आपके कभी अकेला नहीं छोड़ता, अपनों के दूरी बनाने के बाद भी नहीं। आज फ्रेंडशिप डे है, जानिए दोस्ती के ऐसे 4 मशहूर किस्से जो सही मायनों में दोस्ती शब्द के मायने समझाते हैं और सिखाते हैं कि दुनिया भले ही साथ छोड़ दे, सच्चा दोस्त कभी साथ नहीं छोड़ता।
सचिन तेंदुलकर-विनोद कांबली : खत्म नहीं होती थी रन बनाने और वड़ा पाव खाने की भूख
भारतीय क्रिकेट की सबसे चर्चित दोस्ती है सचिन और विनोद कांबली की। इन्हें मुम्बई क्रिकेट के ‘जय-वीरू’ के नाम से भी जाना है। दोस्ती की शुरुआत तब हुई जब सचिन की उम्र 9 और विनोद कांबली की 10 साल थी। जगह थी मुंबई का शारदा श्रम स्कूल। यहां पढ़ाई, मजाक, मस्ती और सजा भी दोनों को साथ मिलती थी। क्रिकेट भी साथ ही खेलते थे। गहरी दोस्ती का ही नतीजा था कि 1988 में दोनों ने वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाए। दोनों ने मिलकर स्कूल क्रिकेट में 664 रन बनाए, जिसे गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में शामिल किया गया। इस घटना के बाद दोनों लाइमलाइट में आए और कुछ साल बाद भारतीय टीम में शामिल हुए।
विनोद कांबली के मुताबिक, कैंटीन में दोनों का फेवरेट फूड वड़ापाव था। कौन कितने वड़ा पाव खा सकता है इसकी भी शर्त लगती थी। सचिन के 100 रन बनाने पर विनोद उन्हें 10 वड़ा पाव खिलाते थे। यही सचिन भी विनोद के लिए करते थे। स्कूल में भाषण देने की बारी आने पर चालाकी से विनोद सचिन को पीछे छोड़ देते थे। ऐसा ही एक वाकया है जब सचिन को स्पीच देनी थी। सचिन का भाषण बमुश्किल एक से दो मिनट का था। लेकिन कांबली ने अंग्रेजी के टीचर से भाषण लिखवाया और उसे मंच पर पढ़कर सचिन को हैरानी में डाल दिया।
दोस्ती का कारवां आगे बढ़ा और मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम पहुंचा। जी तोड़ मेहनत रंग लाई और दोनों क्रिकेट जगत में सितारे की तरह चमके। लेकिन इस बीच पहली बार दोनों का प्यार भरा झगड़ा भी हुआ। वजह थी किसमें कितनी ताकत है। जगह थी स्टेडियम की विट्ठल स्टैंड की चौथी कतार। हाथापाई शुरू हुई लेकिन सचिन को खुश देखने के लिए कांबली जानबूझकर जमीन पर गिर गए।
कांबली ने एक इंटरव्यू बताया, मुझे हराने में सचिन को बहुत मजा आता था चाहें क्रिकेट का मैदान हो या स्कूल में ताकत दिखाने की आदत। सचिन उनसे उम्र में छोटे थे वह उन्हें निराश नहीं करना चाहते थे। कांबली के मुताबिक, सचिन को हमेशा से ही पंजा लड़ाकर ताकत दिखाने का शौक रहा है। दोनों ने 14-15 साल की उम्र में 1987 वर्ल्ड कप में बतौर बॉल ब्वॉय क्रिकेट से जुड़े। मैच इंग्लैंड और भारत के बीच था। यह वो दिन था जब दोनों ने मिलकर सपना देखा कि अगला वर्ल्ड कप हम साथ मिलकर ही खेलेंगे और ऐसा ही हुआ। 1992 में वर्ल्ड कप खेला। अब तक के सफर में दोनों के बीच कई बार दोस्टी टूटने की खबरें भी आईं लेकिन दोनों हमेशा इस पर शांत रहे और कभी एक-दूसरे का विरोध नहीं किया।
संजय दत्त - राजकुमार हीरानी: दोस्ती दुनिया के सामने जाहिर नहीं की, लेकिन हमेशा निभाई
दोस्त की बिगड़ी छवि को सुधारने और उसे सही पटरी पर लाने का काम एक दोस्त ही कर सकता है, फिल्ममेकर राजकुमार हीरानी और अभिनेता संजय की दोस्ती भी इसी पटरी पर आगे बढ़ती है। फिल्म संजू बनाने के बाद राजकुमार हीरानी पर संजय की बिगड़ी छवि को बदलने के आरोप लगे। यूं तो संजय और राजकुमार हीरानी ने कभी खुलकर एक-दूसरे से दोस्ती को नहीं स्वीकारा लेकिन फिल्म संजू में छवि बदलने के आरोप लगे तो आखिरकार हीरानी ने स्वीकारा कि उन्होंने फिल्म में कई ऐसे सीन डाले जो संजय के प्रति लोगों के दिन में सहनभूति पैदा करते हैं।
राजकुमार और संजय की पहली मुलाकात 2003 में हुई। हीरानी फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस के लिए जिम्मी शेरगिल के रोल में संजय दत्त को लेना चाहते थे और मुन्नाभाई के लिए शाहरुखा पहली पसंद थे। लेकिन बात नहीं बन पाई और अंत में संजय ने मुन्नाभाई का किरदार निभाया। दोनों की दोस्ती आगे बढ़ी और संजय की पत्नी मान्यता के कहने पर हीरानी ने संजू की बायोपिक की तैयारी शुरू की।
राजकुमार के मुताबिक, जब फिल्म का एक हिस्सा बनकर तैयार हुआ उसे उन पहले लोगों को दिखाया गया जो संजय दत्त से नफरत करते थे। उन लोगों का जवाब था, हम इस इंसान से नफरत करते हैं और ऐसी फिल्म नहीं देखना चाहते। इसके बाद फिल्म में कुछ बदलाव किए गए जिसमें कुछ ऐसे सीन भी डाले गए जो संजय दत्त की छवि को सुधारने का काम करते हैं।
आनंद महिंद्रा और उदय कोटक : दोस्त ही नहीं मेंटर और गाइड भी
बिजनेसमैन उदय कोटक आनंद महिंद्रा को सिर्फ दोस्त ही नहीं मेंटर और गाइड भी मानते हैं। दोस्ती की शुरुआत उस समय हुई जब उदय कोटक की शादी हो रही थी, तो मेहमानों में आनंद महिंद्रा भी थे। आनंद विदेश से पढ़कर तभी लौटे थे और महिंद्रा एंड महिंद्रा समूह की कंपनी महिंद्रा स्टील का कारोबार देख रहे थे। यह स्टील कंपनी कोटक की क्लाइंट थी। बातों-बातों में कोटक के व्यापार में निवेश की बात निकल आई और 30 लाख रुपए के शुरुआती इक्विटी कैपिटल के साथ नई कंपनी की शुरुआत करने की बात तय हुई। आनंद के पिता भी उदय की कंपनी के चेयरमेन बनने कोराजी हो गए। जब आनंद की एंट्री बोर्ड मेंबर्स में हुई, तो उन्होंने कंपनी को नाम दिया-कोटक महिंद्रा। इस तरह कोटक महिंद्रा फाइनेंस की शुरुआत हुई।
महिंद्रा के जुड़ने से कंपनी की विश्वसनीयता और बढ़ गई। हालांकि 2009 में आनंद महिंद्रा ने अपने आप को इस कंपनी से अलग कर लिया, पर आज भी महिंद्रा का नाम इस कंपनी से जुड़ा है।2017 में कोटक-महिंद्रा बैंक की एक स्कीम की लॉन्चिंग पर कोटक महिंद्रा ग्रुप के एग्जीक्यूटिव वाइस चेयरपर्सन और मैनेजिंग डायरेक्टर उदय कोटक ने यह बात साझा की थी। इसको लेकर आनंद ने ट्वीट किया जिसमें लिखा था, ‘साल 1985 में युवा उदय कोटक मेरे ऑफिस में आए थे, वह बहुत स्मार्ट थे और मैंने पूछा हूं कि क्या मैं उसकी कंपनी ने निवेश कर सकता हूं, यह मेरा सबसे बेहतरीन निर्णय था। इसका जवाब देते हुए उदय कोटक ने लिखा, ‘धन्यवाद आनंद, इस पूरी यात्रा में आप मेरे दोस्त, मेंटर और मार्गदर्शक रहे हैं।’
किरण मजूमदार शॉ : जब बात पति और दोस्त की जिंदगी की आई तो दोनों फर्ज निभाए
दोस्ती का एक बेहतरीन किस्सा बायोकॉन की मैनेजिंग डायरेक्टर किरन मजूमदार शॉ से भी जुड़ा है। जीवन में एक समय ऐसा भी आया था जब पति और दोस्त दोनों कैंसर से जूझ रहे थे लेकिन उन्होंने बिजनेस, परिवार और दाेस्ती के बीच तीनों ही जिम्मेदारियां बखूबी निभाईं भीं दूसरों की मदद का रास्ता भी साफ किया।किरन की सबसे करीबी दोस्त नीलिमा रोशेन को 2002 में कैंसर डिटेक्ट हुआ था।
आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार से होने के बाद भी ज्यादातर दवाएं बाहर से आने कारण नीलिमा को पैसों की बेहद जरूरत थी। ऐसे में किरन उनके साथ खड़ी रहीं और आर्थिक मदद की। किरन दोस्त की बीमारी के तनाव से बाहर निकल पाती इससे पहले उन्हें एक और खबर ने परेशान कर दिया। 2007 में पता चला कि पति जॉन शॉ भी कैंसर से जूझ रहे हैं। दोनों ही घटनाओं ने किरन को इस हद तक परेशान किया कि भविष्य में दूसरे के साथ ऐसा न हो इसका हल सोचने पर मजबूर कर दिया।
किरन ने नारायण हृदयालय के देवी शेट्टी के साथ मिलकर बेंगलुरू में 2007 में मजूमदार-शॉ कैंसर हॉस्पिटल की शुरुआत की जो बेहद कम खर्च में कैंसर का इलाज उपलब्ध कराता है। कई महीने के चले इलाज के साथ पति की कैंसर मुक्त होने की खबर मिली। किरन के मुताबिक, जब डॉक्टर के मुंह से यह खबर सुनी जॉन अब पूरी तरह स्वस्थ हैं, इस खुशी मैं शब्दों में नहीं बता सकती। दोस्त के इलाज के दौरान किरन ने उनके साथ काफी समय बिताया, उसके साथ टूर पर भी गईं ताकि वह अच्छा महसूस करे।
किरन हर वीकेंड पर हैदराबाद दोस्त से मिलने आती थीं उन्हें सरप्राइज पार्टी देती थीं। व्ययस्तता के बावजूद उनके साथ समय बिताती थीं लेकिन एक दिन ऐसा भी आया जब नीलिमा ने अंतिम सांस ली और यह दोस्ती अंतिम समय तक कायम रही।
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